Wednesday, 10 May 2023

वह फिर नहीं आई : भगवती चरण वर्मा

 यह लघु उपन्यास भगवती चरण वर्मा द्वारा रचित है जिसका प्रकाशन राजकमल समूह ने किया है। प्रथम बार प्रकाशन 1960।  भगवती चरण वर्मा किसी भी परिचय के मोहताज नहीं हैं और आपके द्वारा रचित प्रसिद्ध  चित्रलेखा पर पहले भी मैंने एक लेख लिखा हुआ है। 

इस लघु उपन्यास में पुनः लेखक ने नारी और उसके अंतर्मन को समझने और समझाने का प्रयास किया है। उपन्यास में सिर्फ तीन पात्र  हैं श्यामला , ज्ञानचंद और जीवन दास ।  ज्ञानचंद जो कि  एक धनाढ्य व्यापारी है, को श्यामला से प्रेम हो जाता है। कहानी के मध्य में जब ज्ञानचंद के खातों में जीवनराम गबन कर देता है तो उसे जानकारी होती है की श्यामला जीवन राम की पत्नी है। यह बहुत ही आश्चर्यजनक प्रतीत होता है की ज्ञानचंद श्यामला का शारीरिक उपभोग करता रहा और ये जान कर भी जीवनदास ने कभी प्रतिकार नहीं किया। 

एक सम्पन्न व्यक्ति कैसे सरकारी तंत्र, न्यायतंत्र और अपने रसूख का उपयोग करके तंत्र का उपयोग अपने हिट में कर सकता है ये देखने को मिलता है। 

जीवनराम को जेल भेजने के उपरांत और जीवनराम का यह कथन की यदि उसने उनके पैसों का गबन किया है तो ज्ञानचंद ने भी जीवनराम की पत्नी का अमर्यादित तौर पर उपभोग किया है, ज्ञानचंद को चिंतन करने  पर मजबूर कर देता है। 

"नैतिकता की दृष्टि से मैं अपने को भयावह रूप से गिरा  हुआ पाता  हूँ । लेकिन मैं अपने से ही पुंछ उठता हूँ - यह नैतिकता क्या बला  है?

यह नैतिकता भी तो उतना  ही बडा धोखा और छल  है, जितना हमारा यह सामाजिक संगठन। भावना  को स्वार्थ के साँचे में ढालकर  नैतिकता की रचना की जाती है, और इस नैतिकता के धोखे में दुनिया को ढालकर समर्थ असमर्थों  पर शासन करता है। नैतिकता कानून का दूसरा भाग है। जहां कानून निषेधात्मक है, वहाँ नैतिकता स्वीकारात्मक है। कानून कहता है 'यह काम नहीं करना चाहिए , यह काम करना अपराध है।'नैतिकता कहती है 'यह काम करना चाहिए, यह काम धर्म है।' नैतिकता कानून से ऊंची है। "


"लेकिन शायद झूठ से हम अलग रह ही नहीं सकते। हमारा सामाजिक जीवन भी तो एक तरह यक व्यापार है - आर्थिक न भी सही, भावनात्मक व्यापार, यद्यपि यह अर्थ हमारे अस्तित्व से एसे बुरी तरह चिपक गया है कि हम इससे भावना  को मुक्त रख ही नहीं पाते। इस व्यापार में माल नहीं बेंचा जाता , बल्कि भावना  का क्रय विक्रय होता है । हमारा समस्त जीवन ही लें दें का है, और इसलिए झूठ की इस परंपरा को तोड़ सक्ने की सामर्थ्य मुझमे नहीं है। सामाजिक शिष्टाचार निभाने के लिए मै निकाल पड़ा । और कोई काम भी तो नहीं था मेरे पास।"

उपन्यास बहुत ही सरल, सपाट और साधारण लिखा गया है और इसमे भगवती बाबू की शैली परिलक्षित होती है जिसमे जीवन दर्शन और स्त्री-पुरुष संबंधों का उधेड़बुन देखने को मिलता है। 






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