चित्रलेखा : भगवती चरण वर्मा , 1934, राजकमल प्रकाशन
"प्रेम और वासना में भेद है, केवल इतना कि वासना पागलपन है, जो क्षणिक है और इसीलिए वासना पागलपन के साथ ही दूर हो जाती है; और प्रेम गंभीर है। उसका अस्तित्व शीघ्र नहीं मिटता।"
भगवती चरण वर्मा लिखित चित्रलेखा उपन्यास प्राचीन पाटलिपुत्र नगर की सामाजिक प्रष्ठभूमि पर आधारित है, जो कि 1934 में पहली बार प्रकाशित हुई थी। श्री वर्मा का जन्म उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के सफीपुर गाँव में हुआ था। इस उपन्यास पर 2 बार फिल्म भी बन चुकी हैं ।
चित्रलेखा की कथा पाप और पुण्य की समस्या पर आधारित है। पाप क्या है? उसका निवास कहाँ है? इन प्रश्नों का उत्तर खोजने के लिए महाप्रभु रत्नाबर के दो शिष्य, श्वेतांक और विशालदेव, क्रमशः सामंत बीजगुप्त और योगी कुमारगिरी की शरण में आते हैं। दोनों ही गुरु अपने अपने जीवन में सिद्धनस्त है, बीजगुप्त भोग विलास और सामाजिक सरोकारों का ज्ञानी पुरुष है तो कुमारगिरी एक सिद्ध योगी और विद्वान हैं जिन्होंने तप और साधना से वासना को जीता है। । श्वेतांक और विशालदेव अपने अपने गुरु से ज्ञान प्राप्त करने की कोशिश करते हैं और किसी न किसी रूप में चित्रलेखा से उनके पथ टकराते हैं। तो चित्रलेखा कौन है? पुस्तक मूलतः चित्रलेखा नाम कि एक नर्तकी के इर्द गिर्द घूमती है जो की यौवन काल में ही वैधव्य प्राप्त कर चुकी होती है और वह परिस्थितियों में फँसकर एक नर्तकी बन जाती है।चित्रलेखा का प्रेमी बीजगुप्त उससे बेहद स्नेह करता है लेकिन सामाजिक स्थिति के कारण विवाह नहीं कर पता। वैसे तो पुस्तक एक विलक्षण कृति है क्यूंकि सारे पात्र अपनी-अपनी परिस्थति को एक विशेष प्रासंगिकता के साथ जोड़ते हैं। पुस्तक में योगी कुमारगिरी, चाणक्य और चित्रलेखा का संवाद बहुत अच्छा और अविस्मरणीय है। साथ ही श्वेतांक-बीजगुप्त-चित्रलेखा का संवाद दर्शनिकता के पुट लिए है और इस कारण उसकी एक एक पंक्ति स्मरण योग्य है।
बीजगुप्त और चित्रलेखा संवाद मे “उन्माद और ज्ञान में जो भेद है, वही वासना और प्रेम में है। उन्माद अस्थायी होता है और ज्ञान स्थाई। कुछ क्षणो के लिए ज्ञान लोप हो सकता है; पर वह मिटता नहीं। जब पागलपन का प्रहार होता है, ज्ञान लोप होता हुआ विदित होता है; पर उन्माद बीत जाने के बाद ही ज्ञान स्पष्ट हो जाता है। यदि ज्ञान अमर नहीं है तो प्रेम भी अमर नहीं है; पर मेरे मत में ज्ञान अमर है - ईश्वर का एक अंश है और साथ ही प्रेम भी।" इसी प्रकार जब चित्रलेखा कुमारगिरी कि दीक्षा स्वीकार करके बीजगुप्त का त्याग कर देती है तो श्वेतांक और यशोधरा में संवाद प्रमुख है जिसमे मनुष्य कि खुद कि कमजोरियों और समन्वय का अच्छा सूत्र है " प्रत्येक व्यक्ति में कमजोरियाँ होती हैं, मनुष्य पूर्ण नहीं है। उन कमजोरियों के लिए उस व्यक्ति को बुरा कहना और शत्रु बनाना उचित नहीं; क्योंकि इस पाकर कोई व्यक्ति किसी का मित्र नई हो सकता। संसार में प्रत्येक व्यक्ति को वह बुरा कहेंगा और प्रत्येक व्यक्ति उसका शत्रु हो जाएगा। फलतः उसका जीवन भार हो जाएगा। मनुष्य का कर्तव्य है, दूसरे की कमजोरियों पर सहानुभूतियों प्रकट करना।" किसी भी हिन्दी साहित्य के प्रेमी के लिए यह पुस्तक पढ्ना आवश्यक है और नारी प्रधान उपन्यासों में प्रमुख है। इसके माध्यम से हम यह ज्ञान प्राप्त करते हैं कि पाप और पुण्य परिस्थतिजन्य है और व्यक्ति विशेष पर निर्भर है। पुस्तक के उपसंहार में महाप्रभु रत्नामबर विशालदेव और श्वेतांक को उनके अनुभवों को सुनते हैं और अंत में बोलते हैं, "संसार में पाप कुछ भी नहीं है, वह केवल मनुष्य के दृष्टिकोण विषमता का दूसरा नाम है। प्रत्येक व्यक्ति एक विशेष प्रकार की मनप्रव्रती लेकर उत्पन्न होता है - प्रत्येक व्यक्ति इस संसार के रंगमच पर एक अभिनय करने आता है। अपनी मनः प्रव्रती से प्रेरित होकर अपने पाठ को वह दुहराता है - यही मनुष्य का जीवन है। जो कुछ मनुष्य करता है , वह उसके स्वबव के अनुकूल होता है और स्वभाव प्राकृतिक है । मनुष्य अपना स्वामी नहीं है, वह परिसहथितियों का दास है - विवश है। कर्ता नहीं है, वह केवल साधन है। फिर पाप और पुण्य कैसा?"
"संसार में पाप कुछ भी नहीं है, यह केवल मनुष्य के दृष्टिकोण की विषमता का दूसरा नाम है। संसार में इसीलिए पाप कि परिभाषा नहीं हो सकी - और ना हो सकती है। हम न पाप करते हैं और न पुण्य करते हैं, हम केवल वह करते हैं जो हमें करना पड़ता है।"
और अंत में यही कहूँगा कि इस पुस्तक को कहीं से भी, कभी भी उठा लीजिए , कि भी प्रसठ पलटिए आपको आनंद या जाएगा। मेरा सभी साहित्य प्रेमियों से यही निवेदन होगा कि इसे अवश्य अपने पुस्तक संग्रह का हिस्सा बनाए। और यहाँ यह लिखना समीचीन होगा कि यह ब्लॉग लगभ 6 माह से अधलिखा पड़ा था। :)
आशा है आप सबको चित्रलेखा के जीवन को जानने कि उत्सुकता हुई होगी।
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