बाणभट्ट की आत्मकथा -पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी “जलौघमग्ना सचराचरा धरा विषाणकोट्याखिलविश्वमूर्तिना | समुदधृता येन वराहरूपिणा स मे स्वयंभूर्भगवान प्रसीदतु ||” बाणभट्ट की आत्मकथा पढने का सबसे पहली बार विचार मन में तब आया जब कुमुद जी से “गुनाहों का देवता” के विषय में बात हो रही थी | बातो-बातो में जानकारी मिली की उक्त पुस्तक अपने ह्रदय में असंख्य मानवीय संवेदनाओ को समाहित किये हुए है और मूलतः वो बाणभट्ट की आत्मकथा की पाण्डुलिपि का हिंदी अनुवाद है जो कि अपूर्ण है और जहाँ कही कोई सन्दर्भ उपलब्ध नहीं है वहां पर लेखक ने अन्य उपलब्ध समकालीन साहित्य का सहारा लिया है| इस लघु आलेख का उद्देश्य पुस्तक या लेखक की अलोचना या मूल्यांकन करना नहीं है| यह एक प्रयास है हिंदी साहित्य की महान विभूतियों और उनके कार्यो को आमजन के बीच में लाने का| वैसे भी जब से अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय बहुल हुए है तब से हिंदी और अन्य लोक भाषा के साहित्यों और जानकारों का अकाल सा पड गया है| एसा नहीं है की युवा पीढ़ी को यह पसंद नहीं है बल्कि मुख्य कारण ये है की उन्हें इस बात का एहसास नहीं की हिंदी साहि
Personal opinions and thoughts, mostly book reviews as everything we want to talk, to know, to express can be deciphered in lines written by someone completely stranger to you.