जगजीत सिंह साहब की एक लोकप्रिय गजल “कोई ये तो बताए......ऐसा होता है तो ये होता क्यू है”...
कभी- 2 ये नजमे अपनी ज़िंदगी से
इतना मेल खाती है की लगता है खुद अपने लिए ही लिखी गयी है...किनही प्रश्नो के
उत्तर मन तलाशा करता है और उनका जवाब हम नही ढूंढ पाते तो मन फिर उदास हो जाता है।
लेकिन ऐसा क्यू होता है की मन में कोई प्रश्न नहीं ही,कोई कौतूहल नहीं है लेकिन दिल उदास रहता है... ना ही
आपने किसी से बहस की, ना ही आपने झगड़ा किया लेकिन ये मन, ये दिल परेशान रेहता ही...॥ किसी से बात करना अच्छा नहीं लगता, किसी का प्रश्न पूछना अच्छा नहीं
लगता ,कुछ सुनने का दिल नहीं करता......
बस एक ही ख़्वाहिश रहती है की कमरे के किसी कोने में बेसुध बिखर जाऊ, बिस्तर में शिथिल होता जाए ये
काया , अंधेरा हो और सन्नाटा... ऐसी
शांति जो दिल में उठे तूफान को शांत कर दे...जब आप स्वयं से पूंछे कि कुछ तो बताओ
क्यु मुंह लटका के बैठे हो, तो उसका जवाब आपके पास स्वयं न हो...जब भी ये दिल उदास होता है, क्यू कोई आस-पास होता है...लेकिन
कुछ समय ऐसा भी होता है जब आप अकेले रहना चाहते है, रोना चाहते है… कोई तर्क, कोई ज्ञान उस स्थिति को व्यक्त नहीं कर पता...
इस विषय पर मुझे स्वामी विवेकानन्द
कि एक सीख याद है जिसमे उन्होने कहा;-
“you have no right to spread the sorrow in already ridden world by
taking out your gloomy and sorrowful face, if you have such, then shut yourself
in a room”…
लेकिन आज के समय में शायद यह संभव नहीं है, यदि आप कही ना जाये तो समाज, आपको आसामाजिक घोषित कर देगा और
अगर आप गए तो ढेरो प्रश्न...
बस मेरा मन भी एक ही उत्तर ढूंढ रहा है ...ऐसा होता है, तो होता क्यू है।कोई ये तो
बताये...
superlike :-)
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