राजधानी एक्सप्रेस वाया उम्मीदपुर हॉल्ट
राजधानी एक्सप्रेस वाया उम्मीदपुर हॉल्ट
यह पुस्तक मूलतः संघ लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित सिविल सेवा परीक्षा के तैयारी के दौरान एक साथ आए युवाओं के दोस्ती, संघर्ष और बलिदान की दास्तान है। लेकिन इसे सिर्फ़ सिविल सेवा परीक्षा तक सीमित कर देना अनुचित होगा क्योंकि यह पुस्तक आपको युवाओं के सपनों की उड़ान के पीछे क्या क्या दर्द छुपा होगा है उससे परिचय करवाती है। पुस्तक का प्रकाशन हिंदी युग्म प्रकाशन ने २०२५ में किया है। लेखक भारतीय राजस्व सेवा के वरिष्ठ अधिकारी हैं जिन्होंने पूर्व में कविता संग्रह प्रकाशित किए हैं और हिंदी साहित्य से वर्षों से संबद्ध रहे हैं।उपन्यास की साहित्यिक समीक्षा के उपरांत ऐसा कतई नहीं लगेगा कि इसके रचनाकार का मूल कार्य साहित्य के इतर है ।
सिविल सेवा परीक्षा भारत देश में एक सम्प्रदाय के समान है, जिसमें कोई अभ्यर्थी किसी भी जाति, धर्म, क्षेत्र और भाषाई विविधता का हो लेकिन उसके सिविल सेवा तैयारी के दौरान के अनुभव लगभग समान होते है और दिल्ली ही इस संप्रदाय का मुख्यालय बनाया जा सकता है। आपने यदि मुखर्जी नगर और राजेंद्र नगर में एक माह का समय भी सिविल सेवा की तैयारी में व्यतीत किया है तो आप स्वयं को किसी न किसी पात्र के रूप में कल्पित जरूर करेंगे।
तो ये कहानी है पाँच दोस्तों की जिसमें शशिभूषण, चंद्रशेखर, दिवाकर, मनोज और स्वयं लेखक शामिल हैं। ये कहानी है उस संघर्ष गाथा कि जो इन सारे दोस्तों ने सिविल सेवा की तैयारी के दौरान जिया।
पूरे उपन्यास का केंद्र बिंदु एक वो छोटा सा घर जिसे चिड़ियाघर का नाम दिया गया है। अब चिड़ियाघर का नाम लेखक ने इसलिए दिया क्यूंकि पक्षी प्रवासी होते हैं और उस मकान में कितने ही पक्षी आते जाते रहते हैं । इसका एक और विस्तृत वर्णन जो मुझे लगता है उचित होगा इस परिप्रेक्ष्य में वो ये है कि चिड़ियाघर में तरह-तरह के जानवर होते हैं, सब की एक अलग पहचान होती है, सबकी एक अलग शैली होती है, सबका अलग अलग खानपान होता है। इसी तरह जितने भी अभ्यर्थी वहाँ रहते थे सबके अलग ही सुर तान थे।
इस उपन्यास में कहानी ऐसे तारतम्य होकर सुनाई गई है जिससे एकदम पाठक बंध सा जाता है और जिसमें आप एक बार उतर गए तो फिर किताब ख़त्म करके ही आपको सुकून मिलेगा। लेखक का बाढ़ के ऊपर डॉक्यूमेंट्री बनाने के लिए बिहार जाना और उस चैप्टर में जैसे बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों का विवरण किया है वह बहुत ही जीवन्त बना है। आज भी उत्तर बिहार, कोसी, पूर्वी उत्तर प्रदेश में बाढ़ आती है तो ये सब विवरण सत्य सजीव होता है। इसी चैप्टर में
दो-तीन दृश्य बहुत ही संजीदगी के साथ लिखे गये हैं, जैसे कि शशि से लेखक का संवाद। शशि लेखक के प्रश्न कि “गाँव जाते हो?” के जवाब में बोलता है,
“दो-तीन बार गया, अब जाने की इच्छा नहीं होती।जो हाकिम कहकर बुलाते थे वहीं अब कहते हैं, चौबे गए छब्बे बनने, दुबे बनकर आ गए।’
फिर मेरी तरफ़ देखते हुए उसने धीरे से कहा “गाँव जाते हुए अब लगता है कभी एक दिन ऐसा होगा कि वहाँ जाना असंभव हो जाएगा। अब वह रास्ता बंद हो रहा है। मैं अचानक से उन सबके लिए अजनबी हो गया हूँ। वे भी मेरे लिए अब अजनबी होते जा रहे हैं ।हमारे बीच अब कुछ नहीं बचा। एक गहरी खाई है जिस पर कोई पुल अब संभव नहीं, संभव हो भी तो वह बेमानी होगा। वह गहरी खाई वहीं रहेगी।”
इसी चैप्टर का एक और अंश उद्धृत करना चाहता हूँ, जिसमे दिवाकर और लेखक, शशि से भेंट के उपरांत निकलने की तैयारी करते हैं और दिवाकर एक दर्शन शास्त्र की व्याख्यान की तरह बोलता है,
“बाढ़ में मारे गए लोगों की विभीषिका देख ली,सपनों के मरने की विभीषिका देख ली। साला, आदमी के मरने का हो या सपनों के मरने का, श्मशान एक-सा वीरान होता है ।इस पूरे प्रदेश में हर रोज़ ऐसे ही न जाने कितने सपने मरकर दफ़न हो जाते हैं।”
कहानी में और भी बहुत कुछ है जिससे प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले छात्रों के जीवन से जुड़े आयाम मिलेंगे और सबसे ज़्यादा मज़ा तो कहानी की जान पाहवा अंकल की कहानी है जिसको आप पढ़ने के उपरांत ही आनंद ले पाएंगे।
यह पुस्तक एक जीवंत उदाहरण है कि जिसने हार नहीं मानी और अंत तक खड़ा रहा, वह विजयी भाव हुआ है चाहे उसकी जैसी भी किस्मत रही हो। चाहे चंद्रशेखर को ही कोई देख ले।
तो बैठ जाइए राजधानी एक्सप्रेस में और मिलते हैं उम्मीदपुर हॉल्ट पर जल्द।
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