Wednesday, 24 May 2017

तमस: भीष्म साहनी


“वतन का फ़िक्र कर ज्यादा मुसीबत आनेवाली है |
तेरी बरबादियों के तजकरे हैं आसमानों  में ||”

भीष्म साहनी द्वारा लिखित "तमस" का नाम वैसे तो बहुत प्रचिलित था परन्तु पढने का अवसर नहीं प्राप्त हुआ| अतः, जब विश्व पुस्तक मेले में राजकमल प्रकाशन के स्टाल पर मेरी दृष्टि इस पर पड़ी तो सहसा लगा की इससे अच्छा अवसर नहीं प्राप्त होगा| भाई अमित सिंह से भी कई बार चर्चा हुई की यह बहुत ही संवेदनशील उपन्यास है और कई बार एसा उद्द्वेलित होकर एसा महसूस होगा की आगे अब नहीं पढ़ पाएँगे , हुआ भी कुछ एसा| पूरा उपन्यास पढने में लगभग 20 दिन लग गए क्युकि कुछ घटनाये और वर्णन पढने के बाद उनकी गहनता और गंभीरता आपको इतना प्रभावित करेंगी कि आपका मन विचलित हो जाएगा|
उपन्यास की पृष्ठभूमि स्वतन्त्रता पूर्व अविभाजित भारत की है जिसमे आज़ादी की लड़ाई और विभाजन की राजनीति साथ साथ चल रही है| बकौल साहनी जी उन्होंने यह उपन्यास भिवंडी दंगो की विभीषता देखने के बाद लिखी क्योंकि उनके मानस पटल पर वो यादें पुनः लौट आई जिन्हें वो समय के साथ पीछे छोड़ आये थे| जानवरों  को धार्मिक तौर पर विभाजित कर जिस पृष्ठभूमि पर शुरुवात होती है वह किस प्रकार पूरे शहर और क्षेत्र को समाहित कर लेती है पता ही नहीं चलता | सुवर और गाय का खेल कब हिन्दू और मुस्लमान के दंगो का कारण बन जाता है यह बस कुछ ही समझ पाते है और जब तक वह कुछ कर पाते पूरा शहर उन्मादी हो जाता है | उसके बाद का सारा खेल राजनीति के खिलाडी और प्रशासन और कानून के प्रहरी  अपनी कुशलता से पूरी कर देते है |
कांग्रेस उस समय एक राजनीतिक दल के साथ ही एकमात्र एसी संस्था थी जोकि सभी जाति, धर्म और विचारधारा के लोगो को जोड़े हुई थी, परन्तु सहनी साब ने बड़ी ही कुशलता से यह बात उभारी है की कांग्रेस के अन्दर ही इतने छोटे-छोटे गुट बन गए थे की उसकी आतंरिक राजनीति गन्दी हो चली थी | कुछ लोग सरकारी ठेकों क लिए, तो कुछ अपने धंधो को बचने के लिए तो कुछ प्रांतीय कमेटी में जाकर आगे की अपनी राजनैतिक व्यवस्था बनाने के लिए | यहाँ तक की इस बात की आपस में सबको मालुमात थी परन्तु स्वार्थ किसी भी बड़ी संस्था को एक सूत्र में बांधे रखने का बहुत बड़ा कारण है| मेहता जी, जरनैल, लक्ष्मी नारायण , कश्मीरी लाल सब पात्र आज भी किसी ना किसी रूप में जिंदा है|
सामाजिक व्यवस्था की अगर हम बात करें तो बड़ी ही ख़ूबसूरती से उपन्यास हर वर्ग और धर्म के अन्दर की व्यवस्था उभर के लाता है | जैसे “शहर में सब काम जैसे बंटे हुए थे : कपडे की ज्यादातर दुकाने हिन्दुओ की थी, जूतों की मुसलमानों की, मोटर-लारियों का सब काम मुसलमानों के हाथों में था , अनाज का काम हिन्दुओ के हाथ में |...हर साल गुरुपर्व के अवसर पर सिखों का जुलूस निकलता तो शहर में तनाव आजाता ; जामा मस्जिद के सामने जुलुस बजा बजाते हुए निकलेगा या नहीं , उस पर पथराव होगा या नहीं...|”  गुरूद्वारे के अन्दर सिंखों की संगत और बहार मुसलमानों के गुट दवारा उन्हें घेरना और फिर सिख महिलाओ का स्वयं की रक्षा हेतु बच्चो सहित आत्महत्या करना जितना कष्टकारी है ये एक वाही व्यक्ति उकेर सकता है जिसने स्वयं उसे महसूस किया हो और इसमें साहनी जी ने एक मील का पत्थर बना दिया है | एक कारण यह भी है की यह कोई काल्पनिक उपन्यास नहीं है बल्कि समाज का नंगा विवरण है जिसे लेखक ने अपनी नज़र से देखा और लिखा है | एक स्थान पर जब कलेक्टर रिचर्ड अपनी मगेतर लीज़ा को समाज के बारे में समझाता है  लिखते है
उपन्यास की परिधि में रिचर्ड जो कि सिविल सेवा में जिला मजिस्ट्रेट के पद पर कार्यरत है और उसकी मंगेतर लीज़ा की कहानी ब्रिटिश शासन और अधिकारीयों को प्रकाशित करती है| कैसे उनके शाशन का उद्देश्य केवल राज करना है ना की समाज या व्यवस्था सुधर करना क्युकि इससे जनता जागरूक हो जाएगी और उन्ही के ऊपर खतरा बढ़ जाएगा| जब शहर में फसाद की गहरी लकीरें उभर रही होती है और कलेक्टर यदि चाहता तो उसे रोक सकता था परन्तु जन बूझ कर कार्यवाही में विलम्ब किया गया जिससे समाज में वर्गों के बीच में दूरियां और बढे और भारत-पाकिस्तान विभाजन पूर्ण हो|
 “...अल्लाह-हो-अकबर !”
लीज़ा : “क्या आवाज़ है ? यह क्या आवाज़ है ? इसका क्या मतलब है ?”
रिचर्ड : “इसका मतलब है, God is great! ”
“यह आवाज़ इस वक़्त क्यों उठाई जा रही है? जरूर कोई धार्मिक पर्व होगा |”
“यह धार्मिक पर्व नहीं है लीज़ा, दरअसल शहर में हिन्दुओ और मुसलमानों के बीच फसाद हो गया है|”
“तुम्हारे रहते फसाद हो गया रिचर्ड ?”
“हम इन धार्मिक झगड़ो में दखल  नहीं  देते| लीज़ा तुम जानती तो हो”
“तुमने इसे बंद क्यों नहीं करवा दिया रिचर्ड?  यहाँ मुझे दर लगता है |”...
“ये लोग आपस में लड़ें क्या यह अच्छी बात है ?”
रिचर्ड हंस कर : “ क्या यह अच्छी बात है की यह लोग मिल कर मेरे खिलाफ लड़ें, मेरा खून करें ?”
...उसे लगा जैसे मानवीय मूल्यों का कोई महत्त्व नहीं होता, वास्तव में महत्त्व केवल शासकीय मूल्यों का होता है |
दंगो के दृश्य हों या उसके बाद के राहत कार्य और उनमे होने वाली सिफारिशी कार्य सब बखूबी लिखा है जैसे “हमें आंकड़े चाहिए, केवल आंकडे ! आप समझते क्यों नहीं? आप लम्बी हांकने लगते है, सारी रामकहानी सुनांने लगते हैं, मुझे सिर्फ आंकड़े चाहिए | कितने मरे, कितने घायल , कितना माली नुक्सान हुआ... ”    

  एसा नहीं कि यह विवरण सिर्फ “तमस” में मिलता है बल्कि विभाजन की त्रासदी आपको मंटो और अमृता प्रीतम में भी मिलेगी उसी वेग से|मेरे हिसाब से हिंदी साहित्य में रूचि रखने वालो और दंगो और विभाजन का अध्ययन करने वालो को इस पुस्तक का सन्दर्भ जरुर करना होगा क्युकि इस से अच्छा और निष्पक्ष विवरण मिलना दुर्लभ होगा वो भी एसे लेखक के द्वारा जो स्वयं पक्षकार रहा हो | इतनी कहानियां चलती है एक साथ और सब विभाजन के अलग अलग पक्षों को उकेरती है हरनाम सिंह- एहसान अली, रणवीर-देवदत्त, शाहनवाज़-रघुनाथ, मुराद अली- नत्थू  आज भी  जब कहीं दंगा होता है तो जीवित हो उठते है |



"यदि सुधार हेतु सुझाव देंगे तो अच्छा लगेगा | "



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