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Tuesday, 31 August 2021
सुहाग के नूपुर: तमिल साहित्य द्वारा हिन्दी को भेंट।
अमृतलाल नागर जी की रचना “सुहाग के नूपुर” पढ़ी जो की तमिल महाकवि इलोंगवान की रचना “शिलप्पदिकारम” का भावार्थ है। पुस्तक राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित है।
नागर जी का जन्म 17.08.1916 को आगरा में हुआ था लेकिन उन्होने लखनऊ को केंद्र बना कर कार्य संपादित किया। हिंदी के अलावा बांग्ला, तमिल, गुजराती, मराठी भाषा में निपुणता हासिल की। अपनी सेवाओ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त किया। उस समय के साहित्यकारों को नयी विधा और नए ज्ञान के प्रति अनुराग प्रशंसनीय है।
यह उपन्यास नागर जी के दक्षिण भारत भ्रमण और उस पर काफ़ी अध्ययन के बाद लिखा गया है। यह उपन्यास आपको उत्तर भारत संस्कारों के परिप्रेक्ष में दक्षिण भारत में प्रचलित सामाजिक व्यवस्था और जीवनशैली का एक प्रतिबिंब है। यह देखा गया है कि कई बार विभिन्न संस्कृतियों जैसे दक्षिण, उत्तर, पूरब और पूर्वोत्तर भारत में अलग अलग लोकाचार, सामाजिक प्रतिष्ठा और जीवन शैली होती है और व्यक्ति अपनी ही सभ्यता को सर्वोच्च समझता है। लेकिन यदि इस तरह के भावार्थ और रूपान्तरण पढ़ेंगे तो हमें समस्त भारत के सांस्कृतिक और सामाजिक व्यवस्था के बारे में जानकारी मिलेगी। यह उपन्यास संगम युग कालीन साहित्य का हिस्सा है जो की तमिल संस्कृति के उच्चतम शिखर का पर्यायी रहा है। संगम साहित्य प्राचीन तमिल समाज की सांस्कृतिक, साहित्यिक, धार्मिक, राजनीतिक और ऐतिहासिक अध्ययन के लिए बेहद उपयोगी हैं।
संगम कालीन साहित्य की यही विशेषता रही है। यह उपन्यास सामाजिक व्यवस्थाओं के साथ-साथ एक स्त्री पुरुष के बीच स्थापित संबंधों और उन संवेदनाओ को उजागर करता है जो कि समाज और कुल की मर्यादा के विरुद्ध हैं। कोवलन और माधवी के प्रणय संबंध, कोवलन और कन्नगी के बीच प्रयस्पर दंपति जीवन को ही उजागर नहीं करता है अपितु सारे समाज के संबंधो को एक-एक कर के परखता है।
लेखक ने वेश्याओं के माध्यम से समाज में व्याप्त उस दोहरे चरित्र को उजागर किया है जो किसी भी वेश्या को एक सामाजिक स्थान न देकर, एक भौतिक वस्तु की भांति देखता है। जिनकी एक उपयोगिता है, एक क़ीमत है और इस क़ीमत को चुकाकर कोई भी उस वस्तु को प्राप्त कर सकता है। जैसा कि लेखक लिखता है: “अपनी उत्तराधिकारी सन्तानो की माताओं, बहन, पत्नियों आदि को पुरुष लोग अपने खाने के दाँत मानते थे और वेश्याओं को दिखाने के दाँत। वे सजावट की सामाजिक मर्यादा का मानदंड थी।”
उपन्यास में माधवी के चरित्र को बड़ी बारीकी से निखारा गया है और उसकी भावनाओ के माध्यम से साहित्यिक उपमाओ में नयी जान डाली गयी है। जैसे “माधवी का अहम हिमालय-सा अजेय भी लगता था और हिमालय प्रतिक्षण गल रहा था, यह सत्य भी अब उसके सम्मुख स्पष्ट था।” चूंकि यह रचना व्यापारी वर्ग और व्यापारिक शहर की गाथा है इसलिये इसमे व्यापारियों के लिए भी गूड़ ज्ञान का वर्णन है जैसे उन्हे अपनी साख को धन और नफे-नुकसान से ज्यादा रक्षित करना चाहिए। इसी परिप्रेक्ष में मनाइहन ने कोवलन को विवाह पश्चात जब आशीर्वचन में कहा “व्यापारी वस्तुओं से खेलता है उनका दास नहीं बनता ।जिस धन को वह मोहांध होकर चाहता है उसे भी प्राणों का संकट आने पर बिना उदास हुए त्रणवट छोड़ देता है। प्राणों से अधिक वह अपनी साख चाहता है, साख के लिए प्राण न्योछावर करता है। व्यापारी सदा मूल को संभालता है। ब्याज का फैलाव घटता - बढ़ता और लुटता भी मिलता है। प्रसंग आने पर बुद्धिमान उसकी चिंता छोड़ देते हैं । तुम केवल अपनी साख बढ़ाने की चिंता करो।”
“व्यापारी अपनी पालित वेश्याओं के द्वारा संबंध बढ़ाता तो हैं, परंतु उनके कारण कभी अपने संबंध बिगाड़ता नहीं। इस मोह से वह योगी की भाँति मुक्त होता है।”
इसके अलावा उपन्यास कई अन्य मामलो मे भी अनूठी है जैसे विदेशी व्यापारियों के साथ किए जाने वाले व्यवहार, राजतंत्र में व्यापार बढ़ाने की नीतियाँ, सामाजिक अनुशासन, वेश्याओ के सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन की अंदरूनी झलक और आपसी ऊहापोह।
पुस्तक का एक वाक्य बहुत प्रिय लगा “श्रद्धा के कण अतल के खड्ड में गिरे हुए नितांत असहाय व्यक्ति को भी आत्मविश्वास देकर ऊपर उठा लेते हैं।"
“पुरुष जाति के स्वार्थ और दंभ भरी मूर्खता से ही सारे पापों का उदय होता है। उसके स्वार्थ के कारण ही उसका अर्धांग-नारी जाति-पीड़ित है। एकांगी दृष्टिकोण से सोचने के कारण ही पुरुष न तो स्त्री को सती बनाकर सुखी कर सका और न वेश्या बनाकर। इसी कारण वह स्वयं भी झकोले खाता है और खाता रहेगा। नारी के रूप में न्याय रो रहा है, महाकवि! उसके आंसुवों में अग्नि प्रलय भी समाई है और जलप्रलय भी !”
सुहाग के नूपुर और चित्रलेखा (जिस पर एक लेख अपूर्ण है), दोनों के कथानक में इतनी समानता है जैसे दोनों एक ही कालखंड के अलग-अलग भू-भाग में एक ही स्त्री की कहानी है। वैसे तो मुख्य किरदार माधवी है लेकिन कननगी कि पतिव्रतता, उसका धैर्य, सहनशीलता उसके पात्र को एक परिमाण के रूप में स्थापित करते हैं विशेषकर जब वह मनिमेक्लाइ को मातृत्व प्रेम से वशीभूत घर लाती है।
इस उपन्यास में सबसे अच्छी बात यही रही की आपको तमिल साहित्य और समाज का एक लघु प्रतिबिंब मिलता है और आशा है की अन्य तमिल भाषा के विशाल साहित्य जैसे मनीमेकलाइ, टोलपककियम, थिरुकुरल आदि पढ़ने को आप इच्छुक होंगे और भाषाई श्रेसठता के इस ढोंगी खेल में पाठक किस विविधता को खो रहे हैं जान पाएंगे।
जरूर पढ़िएगा।
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